हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने फरमाया, मज़दूर की क्षमता को बेहतर बनाने के लिए हालात मुहैया करना फ़रीज़ा है।
हदीस में है,अगर किसी शख़्स ने मज़दूर की मज़दूरी कम दी तो अल्लाह उसके अमल को बर्बाद कर देता है और वह जन्नत की ख़ुशबू भी सूंघ नहीं पाएगा।
अगर कोई किसी मज़दूर पर ज़ुल्म करता है, उसकी मज़दूरी के सिलसिले में और मज़दूरी देने में ज़ुल्म व नाइंसाफ़ी से काम लेता है तो उसके सभी भले काम बर्बाद जो जाते हैं।
ज़ब्त कर लिए जाते हैं तबाह व बर्बाद हो जाते हैं और अल्लाह उस शख़्स पर जन्नत की ख़ुशबू को हराम कर देता है। यानी ऐसा ही है सवाल यह है कि ज़ुल्म क्या है? ज़ुल्म सिर्फ़ यह है कि उसकी मज़दूरी न दें? जी हाँ! यह बहुत बड़ा ज़ुल्म हैं।
लेकिन सिर्फ़ इतनी सी बात नहीं है! मेरा ख़याल यह है कि मज़दूर के कलयाण के लिए कोई क़दम न उठाना या मिसाल के तौर पर उसके लिए बीमा, हेल्थ, शिक्षा, महारत और क्रिएटिविटी के लिए सहूलत मुहैया न करना, ये सब भी ज़ुल्म है।